दिल्ली में तमिलनाडु के किसानों के प्रदर्शन का सच

नई दिल्ली। दिल्ली में कई हफ्तों से तमिलनाडु के किसानों का एक प्रदर्शन चल रहा है। अजीबोगरीब कपड़ों और हरकतों वाले इन कथित किसानों को शुरू में तो लोगों ने नजरअंदाज कर दिया। बाद में इन्हें लेकर थोड़ी सहानुभूति भी पैदा हुई लेकिन इनके पीछे की सच्चाई जानकर आप हैरान रह जाएंगे। मोटे तौर पर देखें तो ये तमिलनाडु के किसानों का नहीं, बल्कि जमींदारों का प्रदर्शन है। जिन्होंने बैंकों से भारी मात्रा में लोन ले रखा है और अब इसे चुकाने को तैयार नहीं हैं। इसके लिए इन जमींदारों ने गरीब किसानों को मोहरा बनाया है और उन्हें प्रदर्शन के लिए आगे किया है। किसानों के प्रदर्शन आम तौर पर राज्य सरकार के खिलाफ होते हैं लेकिन हैरानी की बात ये है कि तमिलनाडु के किसान सीधे दिल्ली चले आए। इसके पीछे बड़ा कारण है तमिलनाडु की सरकार, जिसने बड़ी चालाकी से इस आंदोलन का मुंह दिल्ली की तरफ मोड़ दिया। ऐसा दिखाया जा रहा है कि आंदोलन पीएम मोदी के खिलाफ है, जबकि मांगें ऐसी हैं जिन्हें तमिलनाडु सरकार को पूरा करना है। किसानों की जो मांगें हैं उनका वास्ता राज्य सरकार से है, न कि केंद्र सरकार से। तमिलनाडु के इन किसानों ने मोटे तौर पर 5 मांगें सरकार के सामने रखी हैं। इन मांगों और इनके पीछे की सच्चाई के बारे में आगे हम आपको बताएंगे।

किसानों की मांग क्या है?

1. खेती पर लोन माफ हो: प्रदर्शनकारी किसानों का कहना है कि कृषि से जुड़े सभी लोन माफ किए जाएं। लेकिन ये मांग सिर्फ छोटे और कम जमीन वाले किसानों के लिए ही नहीं, बल्कि बड़े जमींदारों के लिए भी है। मांग में खुलकर कहा गया है कि लोन माफ करते वक्त यह न देखा जाए कि किसी किसान के पास कितनी जमीन है। किसानों की इस मांग का भी सीधे तौर पर तमिलनाडु सरकार से ही वास्ता है। जिस तरह से यूपी सरकार ने किसानों का कर्ज माफ किया, उसी तरह से तमिलनाडु सरकार चाहे तो कर्ज माफ कर सकती है। वैसे भी सूखा पीड़ित किसानों को राहत के लिए केंद्र सरकार ने पिछले ही महीने 2000 करोड़ रुपये का फंड जारी किया है। इस बारे में हमने प्रदर्शनकारी किसानों के नेताओं से पूछा तो वो सीधे तौर पर कुछ कहने को तैयार नहीं होते। जबकि देखा जाए तो ये बड़ी रकम है जिससे किसानों को फौरी राहत की शुरुआत की जा सकती है।

2. 40 हजार करोड़ की मांग: किसानों की दूसरी मांग है कि सूखा राहत के लिए केंद्र सरकार कम से कम 40 हजार करोड़ रुपये जारी करे। देखा जाए तो यही उनकी असली मांग है। लेकिन 40 हजार करोड़ ही क्यों? क्योंकि पूरे देश में किसानों का कर्ज माफ करना हो तो 72 हजार करोड़ रुपए की जरूरत होगी, तो क्या तमिलनाडु में ही देश के करीब 60 फीसदी किसान रहते हैं जो उन्हें 40 हजार करोड़ रुपये दिए जाएं? यहां हम आपको बता दें कि तमिलनाडु खेती के मामले में देश के पहले 10 राज्यों में भी नहीं है। यानी वहां खेती पर आश्रितता बहुत कम है। ऐसे में अचानक तमिलनाडु के किसानों का ये आंदोलन और जरूरत से कई गुना ज्यादा रकम की डिमांड हैरानी में डालता है। इसी से यह शक भी पैदा होता है कि किसानों को आगे करके ब्लैकमेल करने की कोशिश तो नहीं हो रही है।

3. नदियों को आपस में जोड़ा जाए: किसानों की मांग है कि दक्षिण भारत की नदियों को आपस में जोड़ा जाए। जबकि सच्चाई यह है कि यह प्रोजेक्ट पहले से चल रहा है। वाजपेयी सरकार के वक्त शुरू हुआ यह काम मनमोहन के प्रधानमंत्री बनते ही रुकवा दिया गया था। जब मोदी सरकार बनी तो उन्होंने इस पर काम शुरू करवाया। पिछले आठ महीनों से कई जगहों पर नदियों को जोड़ने के लिए इंटरलिंक बनाने का काम शुरू भी हो चुका है। वैसे भी नदियों को जोड़ने का प्रोजेक्ट साल छह महीने में खत्म नहीं हो सकता। ये लंबा काम है और इसमें 10 साल तक का वक्त लगने के आसार हैं। ऐसे रिवर इंटरलिंकिंग प्रोजेक्ट के लिए जब जमीन की जरूरत पड़ती है तो सबसे पहली रुकावट किसान ही बनते हैं जो अपनी जमीन देने को तैयार नहीं होते। ऐसे तमाम विवादों और कोर्ट कचहरी से निपटकर ही सरकार इस प्रोजेक्ट को पूरा कर सकेगी।

4. कावेरी मैनेजमेंट बोर्ड बने: तमिलनाडु के इन किसानों की एक मांग यह भी है। जबकि यह मामला पहले से ही कानूनी पचड़े में फंसा हुआ है। केंद्र सरकार चाहे कि वो कावेरी मैनेजमेंट बोर्ड बना दे तो अदालती मुकदमे के चलते ऐसा संभव ही नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने बोर्ड के गठन का आदेश दिया था, जिसके खिलाफ कर्नाटक सरकार ने पिछले साल सुप्रीम कोर्ट में अपील दाखिल कर रखी है। कर्नाटक सरकार ने तो सुप्रीम कोर्ट में यह दलील भी दी है कि कावेरी जल प्रबंधन बोर्ड का गठन केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र से बाहर है, क्योंकि वो इस मामले में पार्टी नहीं है।

5. केमिकल फर्टिलाइजर पर रोक लगे: किसान चाहते हैं कि केंद्र सरकार रसायनिक खादों पर रोक लगाए। यह मांग एकदम से अव्यावहारिक है। हालांकि इस मांग पर भी फैसला केंद्र के दायरे में नहीं बल्कि तमिलनाडु सरकार के दायरे में आता है। रही बात केंद्र की तो उसने यूरिया में नीम कोटिंग जैसे कदमों से रसायनिक खादों पर आश्रितता कम करने की कोशिश की है। केंद्र सरकार आर्गेनिक खेती को बढ़ावा भी दे रही है और किसानों को जैविक खाद इस्तेमाल करने पर प्रोत्साहन देने की योजनाएं चल रही हैं।

किसान आंदोलन के पीछे कौन? दरअसल जंतर-मंतर पर चल रहे प्रदर्शन के नेता का नाम श्री अय्याकन्नू है। 68 साल के अय्याकन्नू जाने-माने वकील हैं और खुद को किसान नेता बताते हैं। अय्याकन्नू के पास तिरुचुरापल्ली और मुसिरी में कई एकड़ खेती की जमीन हैं। वो इस इलाके के पुराने जमींदार हैं। अय्याकन्नू कभी आरएसएस के भारतीय किसान संघ से जुड़े रहे हैं। इसके पहले वो सुब्रह्मण्यम स्वामी की जनता पार्टी में भी रह चुके हैं। 1977 में उन्होंने जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव भी लड़ा था और आखिरी नंबर पर आए थे। भारतीय किसान संघ के अंदर अय्याकन्नू का विरोध तब बढ़ने लगा था जब उन्होंने एक के बाद एक सिर्फ बड़े जमींदारों के मुद्दे पर आंदोलन किए। उन पर जयललिता की सरकार के वक्त बड़े किसानों की भलाई के लिए ब्लैकमेल करने जैसे आरोप भी लगे। जिसके बाद अय्याकन्नू को भारतीय मजदूर संघ ने बाहर का रास्ता दिखा दिया। खुद अय्याकन्नू के परिवार ने भारी मात्रा में एग्रिकल्चर लोन ले रखा है। इसलिए वो चाहते हैं कि किसी तरह से ये कर्ज माफ करवा लिया जाए। ऐसा हुआ तो छोटे किसानों को तो फायदा होगा, लेकिन सबसे बड़ा फायदा खुद अय्याकन्नू के परिवार का होगा। अय्याकन्नू इस बात के लिए तैयार नहीं हैं कि लोन माफी का फायदा सिर्फ छोटी काश्तकारी के किसानों को ही मिले। उनके इस आंदोलन को तमिलनाडु के कई जमींदारों और उद्योगपतियों का समर्थन मिला हुआ है।

किसके फायदे के लिए आंदोलन

2014 में मोदी सरकार बनने के बाद श्री अय्याकन्नू ने नेशनल एग्रिकल्चर एसोसिएशन नाम से एक संस्था बनाई और खुद उसका अध्यक्ष बन गए। इसके बाद उन्होंने तमिलनाडु के कई दूसरे छोटे-बड़े किसान संगठनों को अपने साथ जोड़ना शुरू कर दिया। लोन माफ होने की उम्मीद से तमाम छोटे-बड़े संगठन उनसे जुड़ते चले गए। नामी वकील होने के कारण सभी को उम्मीद है कि वो कानूनी लड़ाई लड़कर उन्हें कर्ज से मुक्ति दिलवा देंगे। ऐसे ही छोटे किसान अय्याकन्नू के इशारे पर दिल्ली चले आए। लेकिन आंदोलन अगर सफल रहा तो असली फायदा अय्याकन्नू जैसे जमींदारों को होगा। क्योंकि बैंकों से ज्यादातर एग्रिकल्चर लोन इन्हीं ने ले रखा है। यहां गौर करने वाली बात यह है कि तमिलनाडु के ज्यादातर बड़े किसान राजनीतिक दलों के नेता हैं। थोड़ा बहुत फायदा मझोले किसानों को भी होगा। लेकिन छोटे किसानों को बहुत कम फायदा होगा। क्योंकि उनमें से ज्यादातर ने बड़े किसानों से ही कर्ज ले रखा है। तमिलनाडु में मुख्यमंत्री पलानीस्वामी की सरकार अभी तक 2000 करोड़ रुपये ही किसानों पर खर्च करने का हिसाब नहीं दे पाई है, ऐसे में अगर 40 हजार करोड़ रुपये दे दिए गए तो खुद सोचिए कि क्या होगा?

सूखे की समस्या का क्या है हल

यह बात सही है कि तमिलनाडु में किसान सूखे के कारण बुरी हालत में हैं। लेकिन उनकी समस्या का हल भी पहले से मौजूद है। यह राज्य सरकार की जिम्मेदारी है कि वो किसानों को फसल बीमा योजना का फायदा पहुंचाए। राज्य सरकार ने अभी तक इस योजना में किसानों के नामांकन का काम भी पूरा नहीं किया है। जबकि कई दूसरे राज्यों में किसानों ने बीमा का फायदा उठाना भी शुरू कर दिया है। ऐसी दूसरी तमाम कोशिश की जा सकती है जिससे किसानों को उनकी मौजूदा समस्याओं से राहत मिले, लेकिन लगता है कि तमिलनाडु सरकार की रुचि किसानों से ज्यादा 40 हजार करोड़ रुपये के पैकेज में है। यही कारण है कि अब तक उसने 2000 करोड़ रुपये भी खर्च नहीं किए।

पीएम को नहीं मिलना चाहिए: इसे किसानों का आंदोलन समझकर कई लोग सोशल मीडिया पर मांग कर रहे हैं कि पीएम मोदी को इस मामले में दखल देनी चाहिए। जबकि यह बात सही नहीं है। वित्त मंत्री अरुण जेटली करीब तीन हफ्ते पहले प्रदर्शनकारी किसानों से मिलकर उनकी मांग सुन चुके हैं। उन्होंने उनकी समस्या का हल भी सुझाया। लेकिन किसानों के कथित नेता उनके सुझावों पर ध्यान देने से ज्यादा पैकेज पर फोकस बनाए रखा। इसके बाद कृषि मंत्री ने भी किसानों के नेताओं से मुलाकात की और उन्हें सूखा पीड़ित किसानों को अभी दी जा रही राहत के बारे में जानकारी दी। लेकिन इसका भी कोई फायदा नहीं हुआ। पीएम मोदी को अच्छी तरह पता है कि यह किसानों का नहीं, बल्कि जमींदारों का आंदोलन है। किसानों को इसमें बलि का बकरा बनाया गया है। तमिलनाडु की सभी राजनीतिक पार्टियों के नेता अपने फायदे के लिए इस आंदोलन को हवा देने में जुटे हुए हैं। कई दूसरे राज्यों के ऐसे जमींदारों की नजर इस आंदोलन पर है। अगर सरकार इनके आगे झुकी तो वो भी इसी तरह के आंदोलन करने दिल्ली पहुंच जाएंगे और केंद्र के लिए सभी की गैर-वाजिब मांगों को मानना संभव नहीं होगा।

आंदोलन के पीछे जिहादी एंगल

यह बात सामने आ चुकी है कि सोशल मीडिया पर इस आंदोलन के समर्थन में हवा बनाने में जुटे ज्यादातर अकाउंट वो हैं जो आम तौर पर देश विरोधी खबरें उड़ाने के लिए जाने जाते हैं। आम आदमी पार्टी की तमिनलाडु यूनिट इसमें सबसे ज्यादा एक्टिव है। इसके ट्विटर अकाउंट से नियमित रूप से आंदोलन की खबरें फैलाई जा रही हैं। साथ ही इसकी सोशल मीडिया विंग आंदोलन को लेकर ऐसी बातें फैला रही है जो सच्चाई नहीं है। तमिलनाडु में बीते कुछ साल में जिहादी ताकतें लगातार मजबूत हो रही हैं। ये सभी केंद्र की बीजेपी सरकार को पसंद नहीं करतीं। आरएसएस से बाहर किए जा चुके कथित किसान नेता अय्याकन्नू को अब इन तत्वों से समर्थन लेने में कोई एतराज भी नहीं है। वो खुद अपने स्वार्थ के लिए गरीब छोटे किसानों को इस्तेमाल कर रहे हैं, लेकिन पर्दे के पीछे खुद भी जिहादी और देश विरोधी ताकतों का मोहरा बने हुए हैं।

 

 

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