बिहार में भी बसपा की नीद उड़ाएंगे यूपी के सवर्ण बसपाई

बिहार चुनाव के नाम पर यूपी के उम्मीदवारों से लाखों की वसूली का बसपा पर लग रहा आरोप

Page 1_1_1तहलका एक्सप्रेस ब्यूरो, लखनऊ। उत्तर प्रदेश की राजनीति में विपक्ष के तख्त को संभालने वाली बहुजन समाजवादी पार्टी गत्ï दिनों लोकसभा चुनाव में शून्य पर सिमट गई। बहुजन समाज पार्टी के लिए यह सबसे बड़ा झटका था क्योंकि पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने जिस तरह से पूर्ण बहुमत की सरकार को उत्तर प्रदेश में स्थापित किया था उससे उत्साहित होकर उन्होंने बहुजन समाजवादी पार्टी को क्षेत्रीय पार्टी की परिसीमा से बाहर करते हुए उसे राष्टï्रीय सीमा की पार्टी में पहुंचा दिया था। मायावती का उत्साह लाजमी भी था क्योंकि उत्तर प्रदेश में खिचड़ी सरकार के बाद एकाएक प्रचंड बहुमत के साथ 2007 में मायावती ने मुख्यमंत्री का तख्त हासिल किया था। इस तख्त को हासिल करने में मायावती ने जहां एड़ी चोटी का जोर लगा दिया था वहीं उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक बहुत बड़ा प्रयोग भी कर डाला जो काफी सफल रहा और वह प्रयोग था सोशल इंजीनियरिंग का। सोशल इंजीनियरिंग मतलब ब्राह्मïण दलित ठाकुर सबको एक साथ एक मंच पर लाकर खड़ा कर देना। मायावती के इस प्रयोग ने बहुजन समाज पार्टी को प्रचंड बहुमत दिलाते हुए यूपी का तख्त भी सौंप दिया लेकिन यहीं से जहां सोशल इंजीनियरिंग के चलते दलित और सवर्णों को एक हो जाना चाहिए था वहीं दलितों का बहुजन समाज पार्टी से मोहभंग होने लगा। और तो और पार्टी में आए सवर्ण भी दलितों से मित्रवत होने के बजाय अपनी सवर्ण होने की ऐंठन को दर-किनार नहीं कर पाए। मकसद था सरकार में आने के बाद अपनी तिजोरी भरना। सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर सरकार तो बन गई लेकिन बहुजन समाजवादी पार्टी का जो मुख्य वोट बैंक था वह किनारे हो गया। इसका खामियाजा विधान सभा चुनाव 2012 में देखने को मिला। यह वही बहुजन समाज पार्टी है जिसने ‘तिलक तराजू और तलवार इनको मारो जूते चारÓ का नारा देकर अपना अस्तित्व बनाया था। बसपा के इसी नारे ने दलित वर्ग में एक जोश भर दिया था कि यह एक इकलौती ऐसी पार्टी है जो सिर्फ और सिर्फ दलितों की सोच को समझती है और उनके उत्थान के लिए ही अस्तित्व में आई है। दलितों के खास होने के चलते ही उत्तर प्रदेश की राजनीति में बहुजन समाज पार्टी ने बहुत जल्द ही अपनी धाक जमा ली थी लेकिन बहन मायावती यह बात जानती थीं कि सिर्फ धाक जमाने से नहीं होगा खुद की सरकार बनाना बहुत जरूरी है और शायद इसी सोच के चलते उन्होंने तिलक तराजू और तलवार को बहुजन समाज के साथ एक करने की ठान ली। और इसी सोच ने सोशल इंजीनियरिंग का रूप लिया। उत्तर प्रदेश की राजनीति में इस सोच को मीडिया से लेकर राजनीति के बड़े-बड़े पैरोकारों ने नकार दिया था, लेकिन मायावती की सोशल इंजीनियरिंग की सोच उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक ब्लास्ट की तरह था। जो फटा और हर तरफ सिर्फ बसपा ही बसपा दिखा। मायावती ने तख्त तो पा लिया लेकिन सवर्णों को संभाल न सकीं। या यूं कहें कि बसपा से जुड़े सवर्ण मायावती से जुड़ तो गए लेकिन उनकी पुरानी सोच को जो ‘तिलक, तराजू और तलवार इनको मारो जूते चारÓ को भूल नहीं पा रहे थे। सरकार बनने के बाद हर वह सवर्ण जो सड़क से उठकर बसपा से जुड़ा था वह एकाएक कामयाबी के अर्श पर पहुंच गया। बहुजन समाजवादी पार्टी के दलित तो समझ गए इस बात को कि सवर्ण कभी उनको अपने साथ कंधे से कंधा मिलाकर नहीं चलने देंगे और शायद इसी के चलते दलितों की नाराजगी बहुजन समाजवादी पार्टी के लिए बड़ा झटका बनकर सामने आई। 2012 के चुनाव में करारी शिकस्त झेलकर विपक्ष में बैठने को मजबूर बसपा लोकसभा चुनाव में शून्य पर सिमट गई और जिस तेजी से पार्टी की परिसीमा को लांघकर राष्टï्रीय पार्टी बनी थी उसके राष्टï्रीय पार्टी होने का तमगा भी छिन गया। बसपा की करारी हार का जब पोस्टमार्टम किया गया तब यह बातें खुलकर सामने आनी शुरू हुईं कि पार्टी में विद्यमान कुछ सवर्ण पार्टी को अंदर ही अंदर खोखला कर रहे थे। सरकार रहते ही यह बात पार्टी के बड़े नेताओं को पता चल गई थी। उन्होंने बहन मायावती को सचेत भी किया था लेकिन प्रचंड बहुमत की जीत की खुमारी बहन मायावती को सच देखने से रोक रहा था और सच को न देखना ही बहन जी के लिए और बसपा के लिए घातक साबित हुआ। हमारे संवाददाता ने जब एक बार फिर बहुजन समाजपार्टी के अंदर खाने में घुसकर कुछ जानने का प्रयास किया तो ऐसी बातें सामने आईं जो बहुजन समाजवादी पार्टी को बिहार में भी नींद उड़ाने के लिए काफी है। पार्टी के कुछ नेता पार्टी में रहते हुए भी पार्टी की नींद उड़ाने के लिए लगे हुए हैं। अब देखना है कि इतने हार झेलने के बाद बहन जी की निंद्रा टूटती है या नहीं।

मुस्लिम वोट बैंक पर डोरे डालने में जुटी बीएसपी

लखनऊ। विधानसभा 2017 का चुनावी रण जीतने के लिए बीएसपी जातीय समीकरणों का ताना-बाना तैयार करने में जुट गई है। सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी दलित सम्मेलन कर बीएसपी के वोट बैंक में सेंध लगाने का प्रयास कर रही है तो बीएसपी सपा के परंपरागत मुस्लिम वोटों में सेंध लगाने की कोशिश में है। बीएसपी नेता इस बात को लेकर मुतमईन हैं कि पार्टी के काडर वोट (दलित) में सेंधमारी करना सपा के लिए आसान नहीं है। पार्टी अपने काडर वोट को बचाते हुए सपा के परंपरागत मुस्लिम वोटरों में सेंध लगाने की तैयारी में जुट गई है। इसके लिए पूरे प्रदेश में बीएसपी नेता बड़े मुस्लिम चेहरों को अपने साथ लाने की तैयारी में जुट गए हैं।
पश्चिमी यूपी बीएसपी के लिए हमेशा से मुफीद रहा है। वहां दलित-मुस्लिम गठजोड़ का नतीजा ये था कि 2009 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी को सर्वाधिक सीटें पश्चिमी यूपी से ही मिली थीं। पश्चिम में मायावती फिर से इसी फार्मूले को आगामी विधानसभा चुनाव में दोहराना चाहती हैं। पार्टी के सूत्र बताते हैं कि सहारनपुर से कांग्रेस के टिकट पर 2014 का लोकसभा चुनाव लड़े इमरान मसूद से बीएसपी नेताओं की नजदीकियां बढ़ी हैं।
इमरान मसूद का राजनीतिक रसूख सहारनपुर ही नहीं आसपास की विधानसभा सीटों पर भी देखने को मिलता है। 2007 का विधानसभा चुनाव इमरान मसूद निर्दलीय लड़े और जीते। चुनाव जीतने के बाद इमरान को सपा ने अपनाया था। आरएलडी नेता कोकब हमीद भी पिछले कुछ महीनों के दौरान बीएसपी से ज्यादा करीब दिख रहे हैं। कुछ महीने पहले कोकब हमीद की तबीयत खराब हुई तो बीएसपी के पश्चिमी यूपी प्रभारी मुनकाद अली उन्हें देखने उनके घर तक गए। बीएसपी के सूत्र बताते हैं कि कई दूसरे मुस्लिम नेताओं से भी बातचीत चल रही है। पार्टी के एक नेता का दावा है कि सत्तारूढ़ सपा के भी कई मुस्लिम चेहरे बीएसपी से लगातार संपर्क में हैं। साफ-सुथरे मुस्लिम चेहरों को पार्टी से जोडऩे की जिम्मेदारी मायावती ने कुछ खास लोगों को सौंपी है।

 

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