यूपी हाईकोर्ट का सरकारी स्कूलों पर फैसला

सीमा पासी 

अभी तक  इन्सान की आधारभूत आवश्यकताओँ में रोटी,कपड़ा और मकान ही आते थे, लेकिन आधुनिक युग में शिक्षा और स्वास्थ्य इसमें शामिल हो गये हैं । शिक्षा को आज के युग में मनुष्य की आधारभूत आवश्यकताओं में इसलिये गिना जाता है, क्योंकि इसके बिना मनुष्य अपना जीवन अच्छी तरह से नहीं जी सकता, आज तो यह भी कहा जाने लगा है कि बिना शिक्षा के मनुष्य पशु समान है । हमारे देश की शिक्षा-व्यवस्था की हालत बहुत खराब है और जिन निजी स्कूलों में अच्छी शिक्षा मिलती है, उन्होंने शिक्षा को व्यवसाय बना रखा है, जिनमें अपने बच्चों को पढ़ाने की कोई आम आदमी सोच भी नहीं सकता तो क्या सरकारी स्कूल बिल्कुल बेकार है, वहाँ हम अपने बच्चों को नहीं पढ़ा सकते ।

वास्तव में सरकारी स्कूलो में कोई कमी नहीं है और जो कमी है उसे सुधारा जा सकता है, लेकिन इस पर किसी का ध्यान नहीं जाता, क्योंकि आज के समय में इन स्कूलों में गरीब तबके के बच्चें पढ़ते हैं, जिनके बारे में प्रशासन में बैठे लोगों का नजरिया बहुत गलत है । वो सोचते है कि इन्होंने पढ़-लिख कर क्या करना है, करना तो इन्होंने मजदूरी ही है । ये वास्तविकता भी है कि इन स्कूलों ने निकले ज्यादातर बच्चे मेहनत मजदूरी का ही काम करते हैं, बहुत कम खुशनसीब बच्चे ही जिन्दगी में कुछ कर पाते है । दलितों के साथ तो सरकारी स्कूल एक प्रकार से छल ही है, क्योंकि इन स्कूलों में पढ़कर दलित अपनी योग्यता दुनिया के सामने नहीं रख सकते और फिर यही दुनिया हम दलितों पर ऊंगली उठाती है कि ये लोग आरक्षण से ही नौकरी ले सकते है, क्योंकि इनमें योग्यता है ही नहीं और नाममात्र के दलितो को छोड़कर सभी दलितों की शिक्षा इन्हीं स्कूलों मे होती है ।

अब सवाल उठता है कि क्या इन स्कूलों में शिक्षक अच्छे नहीं होते या इन स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों में कमी होती है । वास्तव में देखा जाये तो ज्यादातर शिक्षक योग्य ही होते हैं, कुछ ही शिक्षक ऐसे है जो जाली डिग्री या सिफारिश और रिश्वत देकर भर्ती हुए है, चाहे इनकी संख्या हजारों में क्यो न हो । अगर सरकार चाहे तो सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर इतना ऊंचा किया जा सकता है कि लोग निजी स्कूलों की बजाये सरकारी स्कूलों में लाईन लगाकर खड़े हो जाये । आजादी के समय हमारे सरकारी स्कूलो में शिक्षा व्यवस्था अच्छी थी, क्योंकि पहले सभी नेता, अफसर और अमीर लोग सरकारी स्कूलों  में ही पढ़े हुए होते थे और वो अपने बच्चों को भी सरकारी स्कूलों में पढ़ाते थे । लेकिन धीरे-धीरे सरकारी स्कूलों का स्तर गिरता गया और अब यहाँ तक पहुँच गया है कि नकल का सहारा लेने के बावजूद बोर्ड परीक्षाओं में पूरी की पूरी कक्षा ही फेल हो जाती है । कई क्षेत्रों में तो सरकारी स्कूलों का बहुत ही बुरा हाल है, कुछ जगहों पर तो शिक्षको ने आगे ठेके पर दूसरे ही शिक्षक रखे हुए है और कुछ जगहों पर कक्षा में आते ही नहीं हैं । वास्तव में सरकारी शिक्षक बच्चों को पढ़ाने के इच्छुक ही नहीं है, क्योंकि वो अपने आपको सरकारी कर्मचारी मानते हैं और सोचते हैं कि काम करे या न करे वेतन तो मिल ही जायेगा और ज्यादा मेहनत करने से कुछ मिलने वाला नहीं है । देखा जाये तो इसमें कुछ गलत भी नहीं है, क्योंकि जिन शिक्षकों के बच्चों का परिणाम अच्छा नहीं आता, उनकों सजा देने का कानून में कोई प्रावधान नहीं है  और न ही किसी किस्म का उनकी नौकरी पर फर्क पड़ता है । अगर हम अपने सरकारी स्कूलों का स्तर सुधारना चाहते हैं तो हमें शिक्षकों की विद्यार्थियों के प्रति जवाबदेही तय करनी होगी ।  जब तक ऐसा नहीं होता है किसी सुधार की अपेक्षा करना व्यर्थ है ।

शिक्षा का स्तर सुधारने के लिये इलाहाबाद के मान्य न्यायाधीश श्री सुधीर अग्रवाल जी ने 18 अगस्त को एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है । जिसमें उन्होंने कहा है कि सरकारी कर्मचारी व अधिकारी, निर्वाचित प्रतिनिधि, जज एंव सरकारी खजाने से वेतन एवं अन्य लाभ प्राप्त सभी निगमों, अर्ध सरकारी संस्थानों आदि में कार्यरत सभी लोग अपने बच्चों को पढ़ने के लिये राज्य के प्राथमिक विद्यालयों में ही भेजें । 6 महीनों के अन्दर इस पर कार्यवाही करनी है और अगर कार्यवाही नहीं की जाती तो कई तरह की आर्थिक सजा का प्रावधान भी किया गया है।

वास्तव में यह एक बहुत अच्छा फैसला है, क्योंकि जब सरकारी अफसरों और नेताओं के बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ेंगे तो निश्चित रूप से सरकारी स्कूलों का सुधार होगा । मेरा मानना है कि इस फैसले को उच्चतम न्यायालय द्वारा लोकहित में पूरे देश में सख्ती से लागू करवाना चाहिये, ताकि देश की शिक्षा व्यवस्था का सुधार हो और निजी स्कूलों की लूटमार पर भी लगाम लगायी जा सके । लेकिन इस फैसले को लागू करते समय यह ध्यान अवश्य रखना चाहिये कि सरकारी स्कूलों में सीटें इतनी कम न हो जाये कि गरीबों के बच्चों को वहाँ जगह ही न मिलें । इसलिये यह जरूरी है कि इस फैसलें का कोई भी बुरा असर गरीबों के बच्चों पर नहीं पड़ना चाहिये, इसके विपरीत उन्हें इसका पूरा फायदा मिलें । यह देखना अब सरकार की जिम्मेदारी होगी ।

 

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