अदालतों में फैसले होते हैं, इंसाफ हो यह ज़रूरी नहीं

RAKESH KAYASTH

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस पी.वी. सावंत ने आजतक को जो इंटरव्यू दिया है, उसमें बहुत सी बातें गौर करने लायक हैं। जस्टिस सावंत का कहना है कि प्रेस कांफ्रेंस करने वाले चारो न्यायधीश वरिष्ठ हैं, उनकी विश्वसनीयता असंदिग्ध है। इसलिए यह माना जाना जा सकता है कि समस्या बहुत गंभीर रही होगी तभी उन्हे इस तरह का कदम उठाना पड़ा।  हालांकि जस्टिस सावंत को लगता है कि माननीय न्याधीशों को प्रेस कांफ्रेस करने के बदले इस मुद्दे पर लेख लिखने जैसे कदम उठाने चाहिए थे। लेकिन जो हुआ वह एक तरह से जनहित में है। इससे नागरिकों को जानकारी मिली कि देश की अदालतों न्याय व्यवस्था किस तरह चल रही है। जस्टिस सावंत ने जो सबसे महत्वपूर्ण बात कही

वह मैं उन्हे शब्दश: कोट करते हुए लिख रहा हूं `जनता को पता होना चाहिए कि न्यायधीश भगवान नहीं होते। अदालतों में निर्णय होते हैं, न्याय हो यह कोई ज़रूरी नहीं।’सच पूछा जाये तो यह प्रकरण इतना बड़ा है कि कुंद पड़ी लोक चेतना को झकझोर सकता है। लेकिन क्या लोक चेतना जागेगी? सवा सौ करोड़ के किसी देश की सामूहिक मेधा पर उंगली उठाना गुस्ताखी होगी। लेकिन सोशल मीडिया पर जो कुछ चल रहा है, उसे देखकर लगता है कि अगर पेट भरा हो और हाथ में स्मार्ट फोन हो, तो जनता कुछ और चाहिए नहीं।  जिस तरह बॉलीवुड के किस्से मनोरंजन है, पॉलिटिक्स मनोरंजन है, उसी तरह सर्वोच्च न्यायालय के चार सीनियर जजों का प्रेस कांफ्रेस में आना भी एक मनोरंजन है।

कांग्रेस-बीजेपी खेलने में जुटी जनता यह समझ नहीं पा रही है कि शुक्रवार के दिन जो हुआ वह इस बात की सूचना था कि देश मल्टीपल ऑर्गन फेलियर की तरफ तेजी से बढ़ रहा है। केंद्र सरकार के मंत्री खुलेआम कहते हैं कि हम संविधान बदलने के लिए सत्ता में आये हैं। संविधान के संरक्षक जज कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट में क्या चल रहा है, यह हम देश को इसलिए बताने आये हैं, ताकि इतिहास हमसे सवाल ना करे कि उस वक्त हम चुप क्यों थे। तय अब इस देश की जनता को करना है।  चारो जजो ने व्यवस्थागत बुनियादी सवाल उठाये हैं। उन्होने चीफ जस्टिस पर व्यवस्था को तोड़ने-मरोड़ने का इल्जाम लगाया है। लेकिन `मोटिव’ पर कुछ नहीं कहा।

सरकार को लेकर भी इन जजों ने कोई टिप्पणी नहीं की है। दूसरी तरफ सरकारी प्रवक्ताओं और सरकार समर्थक लोगो की आक्रमकता देख लीजिये, आपको पूरी कहानी समझ में आ जाएगी। हम’ बनाम `वे’ का जो नैरेटिव लगातार इस देश में चलाने की कोशिश की जा रही है, वह पूरी तरह कारगर होता नज़र आ रहा है। तर्क के सामान्य सिद्धांत भी कोई मानने को तैयार नहीं है। संवाद जिस तरह आगे बढ़ रहा है, उसे देखकर यही लगता है कि आनेवाले दिनो में जब अदालतों में किसी मुकदमे पर बहस होगी तो हार रहा वकील कहेगा— मी लॉर्ड! विरोधी वकील दूसरी विचारधारा के हैं, इसलिए मुझे हराना चाहते हैं। मुमकिन है, मी लॉर्ड भी इस दलील को स्वीकार कर लें।

(वरिष्ठ पत्रकार राकेश कायस्थ के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
 

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