कितनी दूर जाएंगे जिग्नेश मेवाणी, बदलाव की राजनीति का कोई एजेंडा है?

उर्मिलेश उर्मिल

तमाम अटकलों और मुश्किलों के बावजूद गुजरात के जुझारू दलित नेता और नव-निर्वाचित निर्दलीय विधायक जिग्नेश मेवाणी ने अपने साथियो के साथ संसद मार्ग पर बीते मंगलवार रैली की। संख्या के हिसाब से भले ही यह बहुत बड़ी रैली नहीं थी पर इसमें हिस्सेदारी करने वाले युवा अपनी कामयाबी को लेकर उत्साहित नजर आये। शुरू से ही रैली को विफल करने के लिए प्रशासनिक स्तर पर तरह-तरह के हथकंडे अपनाये जाते रहे। मुख्यधारा के चैनलों में भी आयोजन को लेकर तरह-तरह की अटकल-भरी खबरें चलती रहींः रैली होगी या नहीं होगी, रैली को पुलिस ने मंजूरी दी या नहीं दी! पर रैली हुई और उसमें जिग्नेश मेवाणी का साथ देने के लिये उत्तर प्रदेश की युवा नेता और इलाहाबाद विॆश्वविद्यालय छात्रसंघ की पूर्व अध्यक्ष रिचा सिंह, असम के जुझारू युवा नेता अखिल गोगोई, जेएनयू छात्र संघ को दो पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार और मोहित पांडे और छात्र नेता शेहला रशीद सहित कई अन्य युवा नेता भी अपने समर्थकों के साथ आये। इन नेताओं ने रैली को संबोधित भी किया। सहारनपुर मे दलित-उत्पीड़न के प्रतिरोध से चर्चित हुए जुझारू दलित नेता चंद्रशेखर आजाद रावण के समर्थक भी रैली में दिखे।

चंद्रशेखर पिछले कई महीने से रासुका के तहत जेल में बंद हैं। रैली के जरिये अपनी उभरती एकता से ये युवा नेता उत्साहित हैं और एक बड़ी ताकत बनकर उभरने का दावा कर रहे हैं। क्या ये जुझारू युवा नेता वाकई मौजूदा राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य में कोई सार्थक हस्तक्षेप कर सकेंगे? इसमें कोई दो राय नहीं कि इन युवा नेताओं में राजनीतिक समझदारी है और साहस भी है। विपक्ष की अनेक बड़ी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय हस्तियों के मुकाबले ये ज्यादा जुझारू और बदलाव की राजनीति के लिये प्रतिबद्धता भी हैं। शायद यही कारण है कि विकल्प की राजनीति के समर्थकों के बीच इन्हें सराहा भी जा रहा है। पर इनके विरोधी सिर्फ सत्ताधारी दल तक सीमित नहीं हैं। विपक्ष की तमाम शक्तियां भी नहीं चाहतीं कि मौजूदा सत्ता-संरचना और सत्ताधारी दल के खिलाफ इन युवाओं को विपक्षी दलों के जनाधार में समर्थन मिले! अगर ऐसा होता है तो निश्चय ही इससे ‘विपक्षी मठाधीशों’ का नुकसान होगा। यही कारण है कि बहुजन समाज पार्टी के समर्थक-खेमे में जिग्नेश मेवाणी या उनकी अगुवाई में उभरते नये युवा गठबंधन की राजनीति को लेकर असहमति और आलोचना के स्वर अभी से उठने लगे हैं।

कई प्रमुख दलित बुद्धिजीवियों ने मेवाणी का नाम लिये बगैर कहना शुरू किया है कि मेवाणी और चंद्रशेखर के जरिये हिन्दी पट्टी में कुछ निहित स्वार्थी शक्तियां दलितों के स्थापित नेतृत्व को अस्थिर या कमजोर करने की कोशिश कर रही हैं। उनका संकेत सुश्री मायावती की तरफ है। निश्चय ही मेवाणी या चंद्रशेखर अगर हिन्दी पट्टी में प्रभावशाली दलित नेता के रूप में उभरते हैं तो इससे सबसे बड़ा नुकसान मायावती का होगा, जो विभिन्न् कारणों से पहले की तरह बहुत जुझारू ढंग से दलितों की आवाज नहीं उठा पा रही हैं। अगर ये युवा नेता निकट भविष्य में संगठित होकर बड़ा नेटवर्क तैयार करते हैं तो सिर्फ बसपा ही नही, कांग्रेस, सपा, ‘आप’ और एनसीपी सहित कई दलों के राजनीतिक आधार में सेंध लगा सकते हैं। क्या ऐसा संभव है? आज के राजनीतिक परिदृश्य को देखें तो इन युवा नेेताओं की पहल में संभावना नजर आती है। इसकी एक बड़ी वजह है कि आम लोग विपक्ष की स्थापित पार्टियों, खासकर क्षेत्रीय पार्टियों से धीरे-धीरे उबने लगे हैं। कांग्रेस एक बड़ी पार्टी है, इसलिये उस पर भले ही ज्यादा प्रभाव न पड़े पर ये युवा नेता अगर ठोस कार्यक्रम लेकर सामने आयें और उसे लागू करने के लिये जोरदार मेहनत करें तो पहले से कमजोर होते क्षेत्रीय दलों के जनाधार में अच्छी-खासी सेंध लगा सकते हैं। लेकिन निकट-भविष्य में ऐसी संभावना के प्रबल संकेत नहीं मिल रहे हैं।

इसकी सबसे बड़ी वजह है-जिग्नेश मेवाणी हों या कन्हैया, इनमें किसी के पास अभी तक बड़ा सांगठनिक नेटवर्क और आधार नहीं है। कन्हैया जिस भाकपा से जुड़े हैं, उनकी पार्टी के दिग्गज नेता किसी कीमत पर उन्हें आगे करनेे को तैयार नहीं दिखते। इससे उनके अपने राजनीतिक अस्तित्व पर खतरा नजर आता है। वैसे भी भाकपा देश की राजनीति में लंबे समय से एक पतनोन्मुख शक्ति के तौर पर मौजूद है। जिग्नेश में दलित-बहुजन समाज का एक हिस्सा नई आशा देख रहा है। लेकिन जिग्नेश जमीनी स्तर पर संगठन खड़ा करने से ज्यादा रूचि राष्ट्रीय राजधानी में अपनी मौजूदगी और राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियां बटोरने में दिखा रहे हैं। यह एक तरह की मृग-मरीचिका है, जो ऊपर से सुंदर दिखती है पर एक बदलाववादी नेता के लिये यह कब फिसलन-भरी जमीन बन जाय, इसका कोई ठिकाना नहीं! अगर जिग्नेश मेवाणी और उनके साथी सांगठनिक नेटवर्क और बड़ा जनाधार बनाने के सतत प्रयास में नहीं जुटते तो क्षेत्रीय या राष्ट्रीय मीडिया में चाहे जितनी सुर्खियां बटोर लें विकल्प या बदलाव की राजनीति के वे ध्वजवाहक नहीं हो सकते! इन नेेताओं को यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि मौजूदा सत्ताधारी पार्टी-भाजपा ने कांग्रेस जैसे बड़े दल को पछाड़ कर अपनी साख अपने नेता के बहुस्तरीय कौशल और संगठन की शक्ति के जरिये बनाई है।

(वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश उर्मिल के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
 

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