दलित-दलित का खेल खेलनेवालो भारत में 1 दलित राष्ट्रपति, 79 दलित एम पी, 543 दलित एमएलए है और कितना विकास चाहिए इनको

संविधान का गठन हुए 68 साल हॊ गये हैं। देश में आज भी दलित के नाम पर राजनीती खेलना बंद नहीं हुआ है। आरक्षण के नाम पर दलितों का एक वर्ग मेवा खा रहा है और उसी दलितों में एक वर्ग है जो आज भी बदहाली का जीवन जी रहा है। आरक्षण एक अभिशाप है और इस अभिशाप के कारण देश में आज जातिवाद का विष बो कर देश को टुकड़े टुकड़े में बांट रहा है।

देश के प्रथम व्यक्ति, देश के राष्ट्रपति एक दलित हैं और विरॊधी कहते हैं की भाजपा दलित विरॊधी है। भाजपा में कुल 40 दलित एमपी हैं और पूरे देश में कुल मिलाकर सभी पार्टियों के 79 दलित एम पी हैं। इसके अलावा पूरे देश में अलग अलग राज्यों से 543 दलित एमएलए हैं। लेकिन इसके बावजूद भी कहा जाता है कि दलितों को मौका नहीं मिलता। संविधान ने सरकारी सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थाओं की खाली सीटों तथा सरकारी/सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में आरक्षण रखा जो पांच वर्षों के लिए था, उसके बाद हालात की समीक्षा किया जाना तय था लेकिन यह अवधि नियमित रूप से अनुवर्ती सरकारों द्वारा अपने लाभ के लिए बड़ा दी जाती रही है।

भारत के संसद में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के प्रतिनिधित्व के लिए भी आरक्षण नीति को विस्तारित किया गया है। पिछले सरकारॊं ने उच्च शिक्षा में 27% आरक्षण दे रखा है और विभिन्न राज्य आरक्षणों में वृद्धि के लिए क़ानून बना रहे हैं। आज कल देश का हर वर्ग आरक्षण की मांग करता हुआ सड़कों पर उतर रहा है और अपने ही शहरों को आग में झुलसा रहा है। आरक्षण के कारण अन्य जाति के प्रतिभान्वित लॊग अवकाशों से वंचित हो रहें हैं और कम प्रतिभावाले आज आरक्षण के वजह से बड़े बड़े पदों में नियुक्त किये जा रहे हैं।

सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षण के विषय में फैसला लेते हुआ कहा है कि सरकार किसी भी क्षेत्र में 50% से अधिक आरक्षण नहीं दे सकता।न्यायालय का मानना है कि इससे समान अभिगम की संविधान की गारंटी का उल्लंघन होगा और इसी वजह से आरक्षण की अधिकतम सीमा तय की गयी थी। बावजूद इसके राज्य कानूनों ने इस 50% की सीमा को पार कर लिया है और सर्वोच्च न्यायलय में इन पर मुकदमे भी चल रहे हैं। लेकिन आज भी आरक्षण को हटाने के बजाय उसे बढ़ावा दिया जा रहा है।

देश में ओबीसी के लिए अतिरिक्त 27% आरक्षण को शामिल करके आरक्षण का यह प्रतिशत 49.5% तक बढ़ा दिया गया है दस  अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) में सीटें 14% अनुसूचित जातियों और 8% अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित हैं। इसके अलावा, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के विद्यार्थियों के लिए केवल 50% अंक ग्रहणीय हैं। यहां तक कि संसद और सभी चुनावों में यह अनुपात लागू होता है, जहां कुछ समुदायों के लोगों के लिए चुनाव क्षेत्र निश्चित किये गये हैं। तमिलनाडु जैसे कुछ राज्यों में आरक्षण का प्रतिशत अनुसूचित जातियों के लिए 18% और अनुसूचित जनजातियों के लिए 1% है, जो स्थानीय जनसांख्या पर आधारित है। आंध्र प्रदेश में, शैक्षिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्गों के लिए 25%, अनुसूचित जातियों के लिए 15%, अनुसूचित जनजातियों के लिए 6% और मुसलमानों के लिए 4% का आरक्षण रखा गया है।

अब तो केवल पिछड़ी ही नहीं अगड़ी जातियां भी आरक्षण की मांग कर रही  हैं। देश मे दलित का कार्ड आगे बड़ाकर अपना राजनैतिक किस्मत चमकानेंवालों की कमी न पहले थी और न अब है। देश भर में ऐसे दलित हैं जो अच्छी खासी नौकरियों में हैं और खुशहाल जीवन जी रहे हैं ,संसद में 79 दलित एम पी  और 543 दलित एमएलए हैं। इनके पास करोड़ों की जायदात है। इनके बच्चे भी अच्छे कॉलेज में पढ़ लिखकर सरकार में बड़े बड़े पदों में काम कर रहे हैं। लेकिन इन में से कॊई भी अपनी ही जाति के पिछड़े हुए दलितों की सहायता नहीं करता।

सब अपने फायदे के लिए ही दलितों का उपयॊग करते हैं और उनके नाम पर राजनीति कर अपनी जेबें भरते हैं। अब से नहीं अपितु आज़ादी के पूर्व से ही दलितों के कल्याण के लिए कई समाज सुधारकों ने काम किया है। रेत्तामलई श्रीनिवास पेरियार, अयोथीदास पंडितर, ज्योतिबा फुले, बसवण्णा, बाबा साहेब अम्बेडकर, छत्रपति साहूजी महाराज और अन्य लोगों ने भी दलितों के उद्दार के लिए अपना जीवन खपाया है। लेकिन राजनीती के चलते आज भी देश में बड़ा तबका  है जो सुविधाओं से वंचित है।

आर्थिक रूप से असहाय केवल दलित जाति में ही नहीं अपितु अगड़ी जातियों में भी है। देश की संपत्ति पर केवल एक जाति का अधिकार नहीं है अपितु सबका समान रूप से अधिकार है। संविधान भी तो यही कहता है तो जाति के आधार पर आरक्षण दे कर संविधान का अपमान करना कितना सही है। देश को आरक्षण के अभिशाप से मुक्त कराना है और विकास के पथ पर देश को आगे बढ़ाना है।

 

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