क्या, आप जानते हैं रानी लक्ष्मीबाई के झंडे से जुड़ी ये दिलचस्प बात?

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी। खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसीवाली रानी थी। लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार, देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार, नकली युद्ध, व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार, सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना, ये थे उसके प्रिय खिलवार,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी। खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसीवाली रानी थी। लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार, देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार, नकली युद्ध, व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार, सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना, ये थे उसके प्रिय खिलवार, … खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसीवाली रानी थी…इन लाइनों को हम जब भी पढ़तें हैं तो शरीर के अंदर एक अलग किस्म की ऊर्जा का एहसास होने लगता है. जब उनके बारे में लिखी गई बातों को पढ़ने मात्र से शरीर में ऊर्जा का संचार होने लगता है तो सोचिए वो शक्ति की देवी के अंदर कितनी शक्ति रही होगी. तो आइये आज हम रानी लक्ष्मीबाई के बारे में जानते हैं…

रानी लक्ष्मीबाई का जन्म बनारस में एक मराठी परिवार में 19 नवंबर 1828 हुआ था. उनका बचपन का नाम मणिकर्णिका तांबे था. बाद में उनकी शादी 1942 झांसी के महाराजा गंगाधर राव नेवलेकर से हो गई. शादी के 11 साल बाद जब गंगाधर राव का निधन हो गया, तब लक्ष्मीबाई ने शासन की बागडोर संभाली. हालांकि उनके एक पुत्र हुआ था लेकिन 04 महीने बाद ही उसकी मृत्यु हो गई. इसके बाद गंगाधर राव के कजिन के बेटे दामोदर राव को दत्तक पुत्र बनाया गया. उस समय ब्रिटिश इंडिया कंपनी का वायसराय डलहौजी था, जिसने दत्तक को वास्तविक उत्तराधिकारी मानने से मना कर दिया. ऐसे में रानी को अंग्रेजों के खिलाफ जंग में उतरना पड़ा.

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी। खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसीवाली रानी थी। लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार, देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार, नकली युद्ध, व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार, सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना, ये थे उसके प्रिय खिलवार, … खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसीवाली रानी थी…इन लाइनों को हम जब भी पढ़तें हैं तो शरीर के अंदर एक अलग किस्म की ऊर्जा का एहसास होने लगता है. जब उनके बारे में लिखी गई बातों को पढ़ने मात्र से शरीर में ऊर्जा का संचार होने लगता है तो सोचिए वो शक्ति की देवी के अंदर कितनी शक्ति रही होगी. तो आइये आज हम रानी लक्ष्मीबाई के बारे में जानते हैं…

रानी लक्ष्मीबाई का जन्म बनारस में एक मराठी परिवार में 19 नवंबर 1828 हुआ था. उनका बचपन का नाम मणिकर्णिका तांबे था. बाद में उनकी शादी 1942 झांसी के महाराजा गंगाधर राव नेवलेकर से हो गई. शादी के 11 साल बाद जब गंगाधर राव का निधन हो गया, तब लक्ष्मीबाई ने शासन की बागडोर संभाली. हालांकि उनके एक पुत्र हुआ था लेकिन 04 महीने बाद ही उसकी मृत्यु हो गई. इसके बाद गंगाधर राव के कजिन के बेटे दामोदर राव को दत्तक पुत्र बनाया गया. उस समय ब्रिटिश इंडिया कंपनी का वायसराय डलहौजी था, जिसने दत्तक को वास्तविक उत्तराधिकारी मानने से मना कर दिया. ऐसे में रानी को अंग्रेजों के खिलाफ जंग में उतरना पड़ा.

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी। खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसीवाली रानी थी। लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार, देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार, नकली युद्ध, व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार, सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना, ये थे उसके प्रिय खिलवार, … खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसीवाली रानी थी…इन लाइनों को हम जब भी पढ़तें हैं तो शरीर के अंदर एक अलग किस्म की ऊर्जा का एहसास होने लगता है. जब उनके बारे में लिखी गई बातों को पढ़ने मात्र से शरीर में ऊर्जा का संचार होने लगता है तो सोचिए वो शक्ति की देवी के अंदर कितनी शक्ति रही होगी. तो आइये आज हम रानी लक्ष्मीबाई के बारे में जानते हैं…

रानी लक्ष्मीबाई का जन्म बनारस में एक मराठी परिवार में 19 नवंबर 1828 हुआ था. उनका बचपन का नाम मणिकर्णिका तांबे था. बाद में उनकी शादी 1942 झांसी के महाराजा गंगाधर राव नेवलेकर से हो गई. शादी के 11 साल बाद जब गंगाधर राव का निधन हो गया, तब लक्ष्मीबाई ने शासन की बागडोर संभाली. हालांकि उनके एक पुत्र हुआ था लेकिन 04 महीने बाद ही उसकी मृत्यु हो गई. इसके बाद गंगाधर राव के कजिन के बेटे दामोदर राव को दत्तक पुत्र बनाया गया. उस समय ब्रिटिश इंडिया कंपनी का वायसराय डलहौजी था, जिसने दत्तक को वास्तविक उत्तराधिकारी मानने से मना कर दिया. ऐसे में रानी को अंग्रेजों के खिलाफ जंग में उतरना पड़ा.

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उस लड़ाई में रानी लक्ष्मीबाई बहादुरी से लड़ीं. 18 जून 1858 को अंग्रेजों की गोली लगने से लक्ष्मीबाई की जब मृत्यु हुई तो उनकी उम्र केवल 29 साल थी. वो घुड़सवारी, शूटिंग, तलवारबाजी में खासी प्रवीण थीं. बचपन से ही उन्हें बुद्धिमान और सबकुछ सीखने में बेहद कुशाग्र माना जाता था. उन्हें हिंदी, उर्दू, मराठी और अंग्रेजी भाषाएं आती थीं.

रानी लक्ष्मीबाई जब अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध के मैदान में पहुंची तो एक खास झंडा वहां सैनिकों का मनोबल बढ़ा रहा था. भगवा रंग के इस झंडे पर भगवान हनुमान विराजमान थे. यही झंडा झांसी का राजसी झंडा भी था. ये आज भी झांसी के सरकारी म्युजियम में रखा है.

रानी लक्ष्मीबाई को घोड़ों को साधने में खासी प्रवीणता थी. उनके पास कई घोड़े थे. इतिहासकारों के अनुसार उसमें सारंगी, पवन और बादल प्रमुख थे. जिस समय वो 1858 में अपने किले से लड़ाई के निकलीं तब वो बादल नाम के अश्व पर सवार थीं.

उस लड़ाई में रानी लक्ष्मीबाई बहादुरी से लड़ीं. 18 जून 1858 को अंग्रेजों की गोली लगने से लक्ष्मीबाई की जब मृत्यु हुई तो उनकी उम्र केवल 29 साल थी. वो घुड़सवारी, शूटिंग, तलवारबाजी में खासी प्रवीण थीं. बचपन से ही उन्हें बुद्धिमान और सबकुछ सीखने में बेहद कुशाग्र माना जाता था. उन्हें हिंदी, उर्दू, मराठी और अंग्रेजी भाषाएं आती थीं.

रानी लक्ष्मीबाई जब अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध के मैदान में पहुंची तो एक खास झंडा वहां सैनिकों का मनोबल बढ़ा रहा था. भगवा रंग के इस झंडे पर भगवान हनुमान विराजमान थे. यही झंडा झांसी का राजसी झंडा भी था. ये आज भी झांसी के सरकारी म्युजियम में रखा है.

रानी लक्ष्मीबाई को घोड़ों को साधने में खासी प्रवीणता थी. उनके पास कई घोड़े थे. इतिहासकारों के अनुसार उसमें सारंगी, पवन और बादल प्रमुख थे. जिस समय वो 1858 में अपने किले से लड़ाई के निकलीं तब वो बादल नाम के अश्व पर सवार थीं.

उस लड़ाई में रानी लक्ष्मीबाई बहादुरी से लड़ीं. 18 जून 1858 को अंग्रेजों की गोली लगने से लक्ष्मीबाई की जब मृत्यु हुई तो उनकी उम्र केवल 29 साल थी. वो घुड़सवारी, शूटिंग, तलवारबाजी में खासी प्रवीण थीं. बचपन से ही उन्हें बुद्धिमान और सबकुछ सीखने में बेहद कुशाग्र माना जाता था. उन्हें हिंदी, उर्दू, मराठी और अंग्रेजी भाषाएं आती थीं.

रानी लक्ष्मीबाई जब अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध के मैदान में पहुंची तो एक खास झंडा वहां सैनिकों का मनोबल बढ़ा रहा था. भगवा रंग के इस झंडे पर भगवान हनुमान विराजमान थे. यही झंडा झांसी का राजसी झंडा भी था. ये आज भी झांसी के सरकारी म्युजियम में रखा है.

रानी लक्ष्मीबाई को घोड़ों को साधने में खासी प्रवीणता थी. उनके पास कई घोड़े थे. इतिहासकारों के अनुसार उसमें सारंगी, पवन और बादल प्रमुख थे. जिस समय वो 1858 में अपने किले से लड़ाई के निकलीं तब वो बादल नाम के अश्व पर सवार थीं.

 

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