कड़ा विरोध, बड़ा एतराज मगर कुर्सी पर ना आने पाए आंच
सच्चा भारतीय वही है, जो हर चीज़ का कतरा-कतरा निचोड़ ले. टूथपेस्ट के ट्यूब का टेंटुआ उस वक्त तक दबाता रहे, जब तक वह पूरी तरह बेजान ना हो जाए. कोल्ड ड्रिंक पीते वक्त यह सुनिश्चित करे कि बोतल की तली में एक बूंद तक ना बचने पाए. थियेटर में गए सच्चे भारतीय को कभी यकीन नहीं होता है कि फिल्म खत्म हो चुकी है.
इसलिए वह तब तक बैठा रहता है, जब तक क्रेडिट रोल पूरी तरह खत्म ना हो जाए. बाजार से खरीदा गया सेब अगर आधा सड़ा निकल जाए तब भी सच्चा भारतीय फल वाले को गालियां देते हुए उसका वह हिस्सा खा लेता है, जो खाने लायक है. दाम में कम, काम में दम, मेहनत की पाई-पाई वसूल ये सब भारतीय जीवन दर्शन के कुछ आदर्श वाक्य हैं.
शिवसैनिक सच्चे भारतीय हैं
सच्चे भारतीय हर क्षेत्र में है, लेकिन शायद देश की राजनीति में सबसे ज्यादा. सत्ता का गलियारा इस ‘भारतीयता’ से लबालब है. तकलीफ चाहे कितनी भी हो लेकिन सच्चे भारतीय मेहनत से हासिल की गई कुर्सी से उतरने को तैयार नहीं है.
एनडीए में बीजेपी की सबसे बड़ी पार्टनर शिवसेना सरकार को लगातार गालियां दे रही है. कांग्रेस के तेवर सरकार को लेकर जैसे हैं, शायद उससे कहीं ज्यादा तीखे तेवर शिवसेना के हैं. लेकिन कड़ा विरोध और तीखी आलोचना ये दोनों काम कुर्सी पर बैठे-बैठे ही हो रहे हैं.
शिवसेना और बीजेपी के बीच रिश्तों में तल्खी लोकसभा चुनाव के फौरन बाद महाराष्ट्र में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान शुरू हुई थी. विधानसभा में शिवसेना हमेशा से सीनियर पार्टनर रही है. पार्टी को उम्मीद थी कि उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री पद के साझा उम्मीदवार के रूप में पेश किया जाएगा. लेकिन मोदी लहर को देखते हुए बीजेपी ने ऐसा करने से इनकार कर दिया. चुनाव नतीजे आने के बाद बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी और झक मारकर शिवसेना को जूनियर पार्टनर के रूप में सरकार में शामिल होना पड़ा.
शिवसेना केंद्र सरकार में भी शामिल है और महाराष्ट्र की राज्य सरकार में भी उसकी हिस्सेदारी है, लेकिन दोनों जगहों पर उसका रवैया विपक्ष जैसा है. उपचुनावों में बीजेपी की हर नाकामी पर शिवसेना ने खुशी जताई है. लेकिन तीखे विरोध के बावजूद शिवसेना ना तो केंद्र सरकार से अलग होने को तैयार है और ना महाराष्ट्र सरकार से. हाल में शिवसेना ने ऐलान किया कि वह बीजेपी से नाता तोड़ेगी लेकिन 2019 से पहले नहीं. यानी जब तक समर्थन का पाई-पाई वसूल ना हो जाए तब तक झगड़े के बावजूद साझा चूल्हा जलता रहेगा, यही होती है, सच्ची भारतीयता.
मान ना मान एनडीए में पासवान
रामविलास पासवान इस देश के सबसे सदाबहार नेता हैं. सरकार यूपीए की हो एनडीए की या थर्ड फ्रंट की पासवान बारी-बारी से सबकी शोभा बढ़ा चुके हैं. नीतीश कुमार अक्सर पासवान को लेकर एक किस्सा सुनाया करते हैं. नीतीश के मुताबिक अपनी पाकिस्तान यात्रा के दौरान पासवान ने वहां की मीडिया को जोर-शोर से बताया था कि उन्होने गुजरात दंगों से आहत होकर एनडीए छोड़ा और एक राजनेता के रूप में उन्हे नरेंद्र मोदी बिल्कुल पसंद नहीं हैं.
लेकिन 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित होते ही वे उनके नेतृत्व वाले एनडीए में शामिल हो गए. मोदी लहर की वजह से उनकी लोक जनशक्ति पार्टी को लोकसभा में छह सीटें मिलीं और वे केंद्र में मंत्री बने. पासवान पर यह इल्जाम लगता रहा कि दलित होने के बावजूद ऊना जैसे तमाम उत्पीड़न के मामलों और गोरक्षकों के उत्पात पर बिल्कुल चुप रहे हैं.
2019 की उल्टी गिनती जैसे ही शुरू हुई, पासवान की चार साल पुरानी चुप्पी टूट गई. अब वे केंद्र सरकार के कामकाज के तौर-तरीकों पर सवाल उठाने लगे हैं. इतना ही नहीं घुमा-फिराकर कांग्रेस की तारीफ भी कर रहे हैं. मीडिया में लगातार अटकलें चल रही हैं कि पासवान अगले चुनाव में कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए के साथ होंगे. सवाल यह है कि पासवान मंत्री पद से इस्तीफा क्यों नहीं देते? दरअसल वे भी कुछ उसी तरह के आदर्श भारतीय हैं, जो स्टेशन पर गाड़ी के रुक जाने के बाद ही अपनी सीट छोड़ता है, उससे पहले नहीं. वे टर्म पूरा करेंगे, हवा का रुख देखेंगे और उसके बाद कोई फैसला लेंगे.
पासवान जैसी ही कहानी बिहार की लोक समता पार्टी के नेता उपेंद्र कुशवाहा की है. कुशवाहा केंद्र सरकार में मंत्री हैं. सरकार में जायज हैसियत न मिलने से नाराज हैं. नाराजगी का इजहार भी कर रहे हैं. लेकिन सरकार में बने हुए हैं. अगला चुनाव एनडीए के बदले यूपीए से लड़ने के सवालों पर न तो हामी भर रहे हैं और न उनका खंडन कर रहे हैं.
हर कोई नायडू नहीं होता
टीडीपी के नेता चंद्रबाबू नायडू की कहानी एनडीए के बाकी साझीदारों से अलग है. उन्होंने आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा न मिलने पर लगातार अपनी नाराजगी जताई. उन्होंने यह भी इल्जाम लगाया कि प्रधानमंत्री मोदी के पास एनडीए के बाकी सहयोगियों की बात सुनने का वक्त नहीं है. नायडू की टीडीपी ने शिवसेना की तरह ज्यादा पैंतरे नहीं दिखाए और बिना ज्यादा वक्त गंवाए एनडीए से अलग हो गई. पार्टी कोटे से केंद्र में मंत्री बने टीडीपी के नेता इस्तीफा दे चुके हैं और उनकी पार्टी संसद से लेकर सड़क तक मोदी सरकार पर हमले कर रही है.
नायडू ने यह रास्ता इसलिए चुना क्योंकि उनकी स्थिति शिवसेना, पासवान या एनडीए में शामिल किसी और नेता से अलग है. आंध्र प्रदेश में वे अपने दम पर सरकार चला रहे हैं. उनकी अपनी राजनीतिक जमीन खासी मजबूत है. आंध्र को स्पेशल स्टेटस न मिलने के सवाल पर एनडीए से अलग होने का उनका फैसला उनकी सियासी जमीन को और पुख्ता करेगा.
`हम’ पार्टी के नेता और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी भी नायडू की तरह अब एनडीए से अलग हो चुके हैं लेकिन उनका मामला नायडू जैसा नहीं है. बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान मांझी को बहुत बड़ा फैक्टर माना जा रहा था, लेकिन 2015 के चुनाव में एनडीए की बुरी तरह हार के बाद मांझी के सितारे गर्दिश में आ गए. मांझी की मुसीबत उस वक्त और बढ़ी जब उनके जानी दुश्मन नीतीश कुमार फिर से एनडीए में लौट आए. मजबूर होकर मांझी को अब यूपीए का दामन थामना पड़ रहा है.
पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा केंद्र सरकार से नाराज हैं, लेकिन अरुण शौरी की तरह उनकी नाराजगी वैचारिक स्तर पर ज्यादा है. पार्टी को उनके लेख लिखने या सरकार विरोधी किसी कार्यक्रम में हिस्सा ले लेने से मोदी को कोई फर्क नहीं पड़ता. केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री से नाराज बीजेपी नेताओं में सबसे दिलचस्प स्थिति बिहारी बाबू शत्रुघ्न सिन्हा की है.
शॉटगन का शिशुपाल फॉर्मूला
शॉटगन की नाराजगी की शुरुआत उस समय हुई जब उन्हे केंद्र में मंत्री नहीं बनाया गया. बिहार के चुनाव के दौरान कैंपेन में शामिल न किए जाने के बाद उनका गुस्सा और बढ़ा. नतीजा यह हुआ कि वे खुलकर केंद्रीय नेतृत्व के खिलाफ बोलने लगे. जल्द ही हमलों का निशाना सीधे प्रधानमंत्री मोदी बनने लगे और बिहारी बाबू का लहजा लगातार तल्ख होता चला गया.
शत्रुघ्न सिन्हा को जल्द ही यह समझ में आ गया था कि बात इतनी बिगड़ चुकी है कि अब उन्हें बीजेपी में कुछ हासिल होनेवाला नहीं है. लिहाजा उन्होंने `शिशुपाल फॉर्मूला’ अपनाया. महाभारत के पात्र शिशुपाल ने कृष्ण को 100 बार गालियां दी थीं और आखिर उन्हीं के हाथो मरकर स्वर्ग का अधिकारी बना था.
शॉटगन को उम्मीद है कि पार्टी कभी न कभी कार्रवाई तो करेगी ही. निकाले जाने मामला सिन्हा वर्सेज मोदी होगा और शहादत भुनाने का मौका मिलेगा. लेकिन बीजेपी एकदम चुप है. बिहारी बाबू कुछ भी बोल रहे हैं, उनकी बात को नोटिस ही नहीं किया जा रहा है.
उधर शॉटगन भी अपने टर्म के पूरे होने का इंतजार कर रहे हैं. इतनी मेहनत से चुनाव लड़कर सांसद बने हैं. आनन-फानन में इस्तीफा देकर बेवजह सांसद के रूप में मिलने वाली सुविधाओं को क्यों लात मारी जाए ? एनडीए और बीजेपी के नाराज नेताओं को देखकर एक बार फिर अक़बर इलाहाबादी याद आते हैं-
क़ौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ,
रंज बहुत है लीडर को, मगर आराम के साथ.
( लेखक व्यंग्यकार हैं.)
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