जातीय आधार पर आरक्षण यानि सापों का पिटारा

आजकल जातिगत संगठनों ने जोरों से मांग फिर उठा दी है कि सरकार जातीय जन-गणना के आंकड़ों को प्रकाशित करे। इस मांग को वे राजनेता भी हवा दे रहे हैं जिनकी राजनीति का मूल आधार ही जातीय मतदाता है। अगर उनकी अपनी जात के लोग मवेशियों की तरह उन्हें थोक वोट न दें तो उनकी दुकान पर ताले पड़ जाएं। मनमोहन सिंह की कांग्रेस सरकार ने यह जातिगत जन-गणना 2011 में फिर शुरु की थी। वह खुद शायद इस लालच में फंस गई थी कि 2014 के चुनाव में इन जातिगत आंकड़ों का वह फायदा उठा सकेगी लेकिन उसे शायद पता नहीं होगा कि इस जातिगत जनगणना के खिलाफ कांग्रेस ने जबर्दस्त जन-आंदोलन खड़ा कर दिया था।

1931 में गांधीजी के विरोध के कारण ही अंग्रेज सरकार ने इस जन-गणना को बंद कर दिया था। अंग्रेज सरकार ने यह जन-गणना 1857 के जन-विद्रोह के बाद शुरु की थी ताकि भारत की विभिन्न जातियों को आपस में लड़ाया जा सके। उनमें चली आ रही ऊंच-नीच की भावना को भड़का कर देश की एकता को भंग किया जा सके। इसीलिए आजादी के बाद जितनी जन-गणनाएं हुईं, उनमें जाति नहीं पूछी जाती थी लेकिन 2011 में उसी कांग्रेस ने उसे फिर शुरु करने का निर्णय किया। मैंने जैसे ही यह खबर सुनी, मैंने इसका विरोध शुरु कर दिया। दैनिक ‘भास्कर’ में जैसे ही मेरा लेख ‘मेरी जाति हिंदुस्तानी’ छपा, सैकड़ों समाजसेवियों, नेताओं, विद्वानों, पत्रकारों और कलाकारों के फोन आए और हमने ‘सबल भारत’ संगठन खड़ा कर दिया।

हम लोगों ने कई अनशन, प्रदर्शन, जुलूस और व्याख्यान आयोजित किए। लगभग इसी समय लोकपाल का आंदोलन चला, उसका प्रचार भी खूब हुआ लेकिन वह अभी तक अधर में लटका हुआ है किन्तु ‘सबल भारत’ को इसका श्रेय मिला कि उसने उस जातिगत जन-गणना को बीच में ही रुकवा दिया। कुछ जातिगत जन-गणना हो तो चुकी थी लेकिन हमारे दबाव के कारण कांग्रेस सरकार ने उन आंकड़ों को भी प्रकाशित नहीं करने का निर्णय लिया। उन दिनों नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे।

वे अक्सर मुझसे बात किया करते थे और हमारे आंदोलन में मदद की पेशकश किया करते थे। मुझे खुशी है कि उन्हें प्रधानमंत्री बने चार साल होने जा रहे हैं लेकिन उन्होंने जातीय जन-गणना के पिटारे को खुलने नहीं दिया है। यह सांपों का पिटारा है। मैं उन्हें बधाई देता हूं और उनसे कहता हूं कि वे डटे रहें। अगर वे थोड़ी हिम्मत दिखाएं तो सरकारी नौकरियों से भी जातिगत आरक्षण को खत्म करें। सिर्फ शिक्षा में आरक्षण ही नहीं, प्रोत्साहन भी दिया जाए लेकिन उसका आधार जाति नहीं, जरुरत हो।

(वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक स्तंभकार डॉ वेद प्रताप वैदिक के फेसबुक पेज से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
 

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